अज्ञेय ने तमाम ऐसे संवादों को अधूरा छोड़ दिया है, जहाँ भावना बहुत तीव्र हो चली है। लेखक का संवाद में पैदा किया गया यह निर्वात उसे और भी खूबसूरत बना देता है।
आप इसे पढ़ते-पढ़ते स्वयं शेखर हो जाते हैं। इसमें पिरोयी गयी अनुभूतियाँ इतनी तीव्र हैं कि सबकुछ आपके सामने घटित होने लगता है। शेखर एक पल के लिए भी रचा गया पात्र नहीं लगता है। लगता ही नहीं कि वह कभी किसी लेखक के हाथ की कठपुतली रहा होगा। उसे मनमाने ढंग से मोड़ और ढाल दिया गया होगा।
शेखर तभी तक पन्नों में सिमटा रहता है, जब तक उसे पढ़ा नहीं गया। पढ़ते ही वह जीवंत हो जाता है। लौट आता है और और शशि की सप्तपर्णी छाया में बड़ी सहजता से आदर्श के नये-नये कीर्तिमान रचता चला जाता है। एक बार पढ़ लेने के बाद उसे पुनः पन्नों में समेटना और सहेजना असम्भव बन पड़ता है।
अज्ञेय के संकेत शेखर को इस समाज के विरोध में सहजता से खड़े होने के लिए बल देने के झूठे प्रयास से लगते हैं। जिसकी उसे कोई आवश्यकता नहीं दिखती है। शेखर कभी बनता हुआ पात्र नहीं जान पड़ता है। वह एक ऐसा पात्र है, जो पहले से ही बना हुआ है। वह उलट परिस्थितियों में शशि की निरंतर तेज हो रही कांति से चमकता चला जाता है।
शेखर पूरी कहानी के जिस-जिस पहलू का हिस्सा बनता है। वहाँ की एक-एक परत उघाड़कर सच उद्घाटित करता चलता है। यह सिलसिला कॉलेज से शुरू होकर, लड़के-लड़की की मित्रता, परिचर्चा, स्वन्त्रता प्राप्ति के लिए किये जा रहे अधूरे उद्योग, जेल और अदालती व्यवस्था, समाज के भीतर छिपी हिंसा, वैवाहिक बंधन, परिवार, साहित्य और प्रकाशकों की दुनिया, समाज-सुधारकों का झूठा दम्भ...
सबके ऊपर की गयी चमकीली सिलन बड़ी सरलता से उतनकर रख देता है।
कहानी में आत्म-तत्व की अधिकता है। जो बार-बार विशाल दर्शन बन जाती है। यह कई दफे ऐसा बड़ा और कड़ा निवाला साबित होती है। जिसे लालचवश लील तो लिया गया है। लेकिन, पचाने में असमर्थता हो रही है। यानी, यह दर्शन सरल और सुपाच्य नहीं है।
शेखर का यह कहना कि, 'जिसे 'समाज के लिए खतरनाक' कह दिया जाता है, समाज उसके लिए तत्काल खतरनाक हो जाता है।' उपन्यास का आज के इस हिंसक और पोलराइजेशन के दौर में इसकी प्रासंगिकता को बल देता है।
इस सबके बीच वह जीकर दिखाता है विराट, निश्छल, सत्य, निर्मल और दिव्य प्रेम। जो उसकी मौसी और शशि की माँ से जुड़कर इतना विशाल हो उठता है कि ईश्वर के प्रतिबिम्ब जैसा नजर आने लगता है।
शेखर और शशि के संवाद में प्रेम की कई सुंदर परिभाषाएँ उभरकर सामने आती हैं। जिनमें लेखक ने प्रेम को शब्दों में बांधने के अधूरे लेकिन, मजबूत प्रयास किये हैं। अपनी इसी मजबूती के चलते इनका उल्लेख आवश्यक बना जाता है। जैसे शेखर का कहना,
'कहते हैं वासना नश्वर है, प्रेम अमर। दोनों में कोई मौलिक विपर्यय है या नहीं, नहीं मालूम; किंतु यदि ये दो हैं तो यह बात कितनी झूठी है! प्रेम का एक ही जीवन है; वह एक बार होता है और जब मर जाता है उसे दूसरा जीवन नहीं मिलता। अमर तो वासना है, जो चाहे खंडित होकर गिरे, चाहे तृप्त होकर, गिरते-गिरते रक्तबीज की तरह नया जीवन पाकर फिर उठ खड़ी होती है...'
एक संवाद में शशि का शेखर से कहना,
'प्यार एक कला है, और कला संयम का दूसरा नाम है। किसी एक व्यक्ति को इतना प्यार नहीं करना चाहिए कि जीवन में किसी दूसरे उद्देश्य की गुंजाइश न रह जाये- कि जीवन एक स्वतंत्र इकाई है और यदि वह बिल्कुल पराधीन हो जाए तो कल नहीं है, क्योंकि कला के आदर्श से उतरकर है।'
और कहानी को समापन रूप देते हुये शेखर का मृत शशि से कहना, 'हम दोनों वर्षों से एक भवन बनाते रहे हैं, तुम और मैं, जिसमें न तुम रहोगे, न मैं.... किंतु हम उसमें नहीं रहेंगे, इसी मात्र से वह कम सुंदर नहीं होगा...'
यह पूरी पुस्तक आदर्श, समर्पण, दर्शन, शक्ति, आलोक और निश्छल प्रेम को समान दृष्टि से सहलाते कोमल स्नेह का मजबूत संग्रह है।
जिसमें लेखक को बीच-खूच बिसर जाता है कि वह उपन्यास रच रहा है। इसके भीतर अनेकों सुंदर कवितायें पिरोयी गयी हैं। शशि के ससुराल से लौटा दिये जाने पर जब उसकी माँ उससे मिलने आती है तो अज्ञेय का लेखन एक सुंदर स्क्रीन प्ले का रूप ले लेता है। जो 2-3 पन्ने तक यूँ ही खिंचा चला जाता है।
अज्ञेय ने तमाम ऐसे संवादों को अधूरा छोड़ दिया है, जहाँ भावना बहुत तीव्र हो चली है। लेखक का संवाद में पैदा किया गया यह निर्वात उसे और भी खूबसूरत बना देता है।
पुस्तक का वैसे ही छप जाना और उसी रूप में स्वीकार लिया जाना, इस पुस्तक में उद्घाटित लेखक की इस बात को बल देता है कि वह शेखर से अलग नहीं है। तभी उसने अपने लिखे को सुधारना, बीते अनुभवों को पन्ने पर सच को मरोड़ने जैसा अनुभव किया और वैसा ही रह जाने दिया।
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