चुनावी रैलियों की भीड़ वोट के लिए नहीं, नोट के लिए जुटती है से आगे...

बिहार विधानसभा चुनाव के लिए आज यानी 28 अक्टूबर 2020 को पहले चरण के मतदान होने हैं. इसके साथ ही दूसरे और तीसरे चरण की विधानसभा सीटों पर चुनाव प्रचार अभियान तेजी पकड़ेगा.

बिहार में चुनाव अभियान कई अनोखे अंदाज में लगातार जारी है. चुनावी रैलियां, रोड शो, डोर टू डोर कैम्पेन और सोशल मीडिया कैम्पेन हर तरीका अपनाया जा रहा है. लेकिन, चुनावी रैलियों में भीड़ जुटाना एक पारंपरिक और सबसे असरदार तरीका माना जाता है. इसके चलते कोरोना महामारी से बचने-बचाने के लिए जो तमाम एहतियात बरते जा रहे थे. सरकारी आदेश और निर्देश जारी किये जा रहे थे. वो सब बिहार की चुनावी रैलियों में आकर ध्वस्त हो गए हैं.


बिहार चुनाव प्रचार में इस बार सबसे अधिक चर्चा का विषय राजद नेेता तेजस्वी यादव की रैलियों में जुट रही भारी-भरकम भीड़ है. वहीं, वर्तमान मुख्यमंत्री और जेडीयू प्रमुख नीतीश कुमार की रैलियों में अधिक भीड़ ना जुटना एक मतदान पूर्व जनादेश की तरह देखा जा रहा है. इसे लेकर सोशल मीडिया से नेशनल टीवी मीडिया तक हर जगह चर्चा और बहस हो रही है. कई टीवी चैनलों ने इस विषय पर डिबेट शो तक किये हैं.

कई राजनीतिक जानकर और वरिष्ठ पत्रकार तो इसे मतदान से पहले सामने आया जनता का रुख बता रहे हैं. उनके अनुसार यह भीड़ राजनीतिक पार्टियों के लिए एक संदेश की तरह है. यह भीड़ बदलाव की बयार है जो सत्तासीन गठबंधन को अपने तरह से जवाब दे रही है.

क्या आप कभी रैलियों में भीड़ का हिस्सा बने हैं? क्या आप अपने घर से 30-40 किलोमीटर दूर राजनेताओं का भाषण सुनने के लिए जाते हैं?

इस सवाल पर 'हाँ' या 'नहीं' के सही जवाब को जानने के लिए हमने बिहार चुनाव में राजद के लिए कैम्पेन में काम कर रहे अभिजीत से बात की. वे बताते हैं, "भीड़ के पीछे एक पूरी गणित काम करती है. असल में पूरी भीड़ के मात्र 20 से 25 फीसदी लोग ही अपनी मर्जी से रैली में पहुंचते हैं. इसमें से ज्यादातर पार्टी कार्यकर्ता होते हैं और अन्य लोग स्टार नेताओं को देखने या हेलीकॉप्टर देखने आते हैं. बाकी के 75 फीसदी लोग पैसे से लाये जाते हैं. उनके लिए घर से लाने और वापस घर ले जाने के अलावा खाने-पीने का भी इंतजाम करना होता है."

यह कोई पहला मौका नहीं है. जब हमें यह जानने को मिल रहा हो कि चुनावी रैलियों में जुटने वाली भीड़ स्वाभाविक भीड़ नहीं होती है. ये किराये पर इकठ्ठे किये गये लोग होते हैं.

मैंने स्वयं लोकसभा चुनाव 2019 और दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 में अलग-अलग पार्टियों के लिए 'इलेक्शन कैम्पेन' किया है. मेरा अनुभव कहता है कि चुनावी रैलियों में झंडा-बैनर उठाने, नारा लगाने से लेकर विशेष प्रतिक्रिया तक हर चीज में पैसे खर्च होते हैं.

हम अक्सर चुनाव के दौरान अखबारों में पढ़ते हैं, 'अरविंद केजरीवाल पर किसी ने इंक फेंकी'. 'तेजस्वी यादव पर चप्पल फेंकी'. 'अमुक पर अंडा फेंका गया'. यह सबकुछ पहले से ही तय होता है. ठीक उसी तर्ज पर जैसे, किसी काम के लिए मजदूर को पैसे दिए जाते हैं.

मुझे याद है कि लोकसभा चुनाव 2020 में बीजेपी सांसद गौतम गम्भीर का रोड शो था. उसमें बमुश्किल 150 लोग ही रहे होंगे. जब रोड शो का वीडियो सोशल मीडिया पर आया तो लोगों की प्रतिक्रियाएं भी आनी शुरू हुईं. लोग लिख रहे थे, "देखो गौतम गंभीर तुम कहाँ से कहाँ आ गये. जब तुम अपने देश के लिए खेलते थे तो 40000 हजार लोग अपनी कुर्सी से उठकर पंजों पर आ जाते थे. आज तुम्हारे लिए 200 लोग भी नहीं जुट रहे हैं."

ऐसी तमाम प्रतिक्रियाएं आती रहीं. लग रहा था कि गौतम गंभीर ने कोई बड़ी गलती की है और उनकी हार तय है. लेकिन, परिणाम इस सबके ठीक उलट आये. उन्हें कुल मतदान के 55.53 फीसदी वोट मिले और 3.91 लाख वोटों के अंतर से जीत दर्ज की.

इसलिए, चुनावी रैलियों में जुट रही भीड़ और सोशल मीडिया पर दिख रही बदलाव की बयार से चुनावी परिणामों के कयास लगाना जल्दबाजी होगी. अक्सर सोशल मीडिया और टीवी पर दिख रही स्थिति से जमीनी हक़ीकत बहुत दूर होती है. यहाँ तक कि टीवी और सोशल मीडिया पर छाये राजनीतिक मुद्दे भी जमीनी मुद्दे नहीं होते हैं. जनता जिस आधार पर वोट करती है, वह एक अलग विज्ञान है.

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गौरव तिवारी

एक नाउम्मीद यायावर, लेखक